भुवनेश्वर/कटक
उड़ीसा के मल्कानगिरी में मोधुपुर के छह वर्षीय राजेश हंसदाक जब अपने कामचलाऊ धनुष और तीरों से खेला करते और पलक झपकते उड़ते पक्षियों का शिकार कर लेते, तो उस समय किसी को भी अनुमान नहीं रहा होगा कि यह आदिवासी बच्चा एक दिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीरंदाजी क्षेत्र का बड़ा नाम होगा।
लेकिन, सफर इतना आसान नहीं रहा। जब युवा राजेश तीरंदाजी में शीर्ष की ओर उड़ान भर रहे थे तो उनके दाहिने कंधे में दर्द खड़ा हो गया। इलाज के बाद भी जब दर्द नहीं गया तो उन्हें तीरंदाज के रूप में अपने करियर को विराम देना पड़ा। हालांकि, तीरंदाजी के लिए इस संथाली युवा का प्रेम इतना गहरा था कि वह चाहकर भी इसे नहीं छोड़ सकता था।
इसलिए अपने पहले प्रेम धुनष-तीर को साथ रखने के लिए उन्होंने थोड़ा रास्ता बदला और भुवनेश्वर स्थित कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (केआईएसएस) में तीरंदाजी कोचिंग में हाथ आजमाया। यहां उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के हेवीवेट कोच के सभी गुणों का प्रदर्शन करते हुए उत्कृष्ट परिणाम दिए।
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तीरंदाज के रूप में राजेश ने जहां एकलव्य प्रशस्ति पत्र पुरस्कार और नाल्को खेल पुरस्कार (2000) जीते, वहीं कोच की भूमिका में भी उन्होंने दक्षिण उड़ीसा उन्नयन परिषद पुरस्कार (2017) सहित कई सम्मान हासिल किए।
यह कहना गलत नहीं होगा कि उड़ीसा के राजेश ने सफलता और असफलता दोनों को करीब से देखा, लेकिन उन्होंने सफलता का स्वाद चखने से पहले संघर्ष की खटास का कही अधिक अनुभव किया।
उनका प्रारंभिक जीवन अभाव और दरिद्रता के भंवर में फंसा रहा। कभी-कभी उन्हें लगता कि सब कुछ छोड़ गुमनामी का जीवन जीना पड़ेगा, परंतु वर्ष 1989 में भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) के तहत दिल्ली स्पेशल एरिया गेम्स से तीरंदाजी कोच आरएस सोढ़ी के आने के बाद कुछ कर गुजरने की चाह ने उनके अंदर एक आग भर दी।
राजेश ने The Indian Tribal को बताया कि सोढ़ी सर ने जीत की मेरी मुरझाई हुई इच्छा की चिंगारी को पुन: हवा दी। इससे पहले, मेरे पिता कमाने के लिए राज्य से बाहर चले गए तो मेरा जीवन बहुत अधिक कठिनाइयों से घिर गया। यहां तक कि अपने दो छोटे भाइयों को घर पर अकेला छोड़ मुझे 11 साल की उम्र में अपनी मां के साथ खेत में हल से जमीन जोतनी पड़ी।
सोढ़ी ने उड़ीसा के विभिन्न हिस्सों से 100 से अधिक नवोदित तीरंदाजों को परखने के लिए मलकानगिरी में एक शिविर लगाया था। राजेश उस समय कक्षा छठी में पढ़ते थे। उन्होंने बिना देर लगाए इस शिविर में अपनी दावेदारी पेश कर दी। टेस्ट हुआ तो दिल्ली के साई हॉस्टल का टिकट पक्का हो गया। प्रतिभा निखारने के लिए चुने गए पांच खिलाडिय़ों में उनका नाम भी सूची बोर्ड पर टंगा था।
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दिल्ली में 14 साल के प्रवास के दौरान उन्होंने विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अपनी जीत का परचम लहराया। उन्होंने इस दौरान विभिन्न प्रतियोगिताओं में 13 स्वर्ण, 11 रजत और तीन कांस्य प्राप्त किए। यही नहीं, उन्होंने 1998 में थाईलैंड में हुए 13वें एशियाई खेलों में भी भाग लिया। वह दूसरे एशियाई ग्रैंड प्रिक्स, चीन, 2002 के पुरुषों की रिकर्व स्पर्धा में छठे स्थान पर रहे।
वह बताते हैं कि व्यक्तिगत खर्च के लिए उन्हें हर महीने साई की ओर से 200 रुपये मिलते थे। इसके बाद सेल ने उन्हें चार साल के लिए प्रति माह 1000 रुपये की छात्रवृत्ति दी। लेकिन, यह रकम मेरे परिवार के भरण-पोषण के लिए अपर्याप्त थी। एक बार जब मैं गांव आया तो मैंने तत्कालीन जिला कलेक्टर जीके ढल से मदद की गुहार लगाई। उन्होंने खेल निदेशालय की ओर से छह महीने के लिए 1000 रुपये मासिक छात्रवृत्ति की व्यवस्था कराई। उन्होंने मेरे पिता को एक सेवादार की नौकरी भी दी, लेकिन वह इसे बीच में छोड़ गांव चले गए।
राजेश अपने कौशल को और अधिक निखारने के लिए 2002 में दिल्ली से सैन्य खेल संस्थान (एएसआई), पुणे चले गए। परंतु, बीते दो वर्षों से परेशान कर रहा दाहिने कंधे में खिंचाव वहां जाकर और तीव्र हो गया। इसलिए उन्हें एएसआई से वापस आना पड़ा। इसके बाद उड़ीसा एथलेटिक्स एसोसिएशन के तत्कालीन सचिव की मदद से केआईएसएस में कोच की भूमिका में आ गए।
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उसके बाद राजेश ने कोच के रूप में अपनी सफलता की नई कहानी लिखी और 40 से अधिक प्रतिभाओं को निखारने का गौरव हासिल किया। बेहतरीन कोचिंग के लिए वर्ष 2011 में क्रीडा संबादिका अशोक पटनायक क्रीड़ा पुरस्कार सहित उन्हें कई सम्मान मिले। उन्होंने थाईलैंड में योग एडवांस कोचिंग कैंप, चीन में विश्व युवा तीरंदाजी चैंपियनशिप, तुर्की में विश्व कप स्टेज-II के अलावा ताइवान की राजधानी ताइपे के 29वें समर यूनिवर्सियेड गेम्स में क्रमश: 2013, 2014, 2015 और 2017 में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
क्योंझर (उड़ीसा) के तीरंदाज सूर्यमणि कहते हैं कि राजेश सर नौसिखिए खिलाडिय़ों के बेसिक पर अधिक फोकस करते हैं। इससे युवाओं का आत्मविश्वास बढ़ता है। अब राजेश की 15 साल की बेटी और 11 साल का बेटा उनके ही पदचिन्हों पर चल निकले हैं। जूनियर स्टेट चैंपियनशिप का खिताब अपने नाम कर चुकी उनकी तीरंदाज बेटी मनस्वरी कहती हैं कि पापा ने न केवल मुझमें तीरंदाजी की भावना का संचार किया, बल्कि इस कौशल को निखारने के लिए भी खूब प्रेरित किया।