झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले में एक ऐसा आदिवासी थिएटर ग्रुप है जो नृत्य, नाटक और संगीत के माध्यम से न केवल अपने दर्शकों का मनोरंजन कर रहा है, बल्कि उन्हें राजनीति, इतिहास, पौराणिक कथाओं और सामाजिक कुरीतियों के प्रति जागरूक भी करता है। इसे लोग मैदी आस्र्टिस्ट्स एसोसिएशन ऑफ ट्राइबल्स यानी एमएएटी के नाम से जानते हैं।
यह वर्ष 1992 से हिंदी के साथ-साथ संथाली और हो जैसी आदिवासी भाषाओं में नाटकों का मंचन करता आ रहा है। इसके नाटकों ने क्रिटिक और दर्शकों दोनों ही पक्षों से प्रशंसा बटोरी है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले तीन दशक में यह ग्रुप अब तक झारखंड के अलावा दिल्ली, केरल, ओडिशा, असम और कई अन्य राज्यों में 18 संथाली, तीन हो और चार हिंदी नाटकों सहित 25 से अधिक शो आयोजित कर चुका है।
पिछले तीन दशक में एमएएटी अब तक झारखंड के अलावा दिल्ली, केरल, ओडिशा, असम और कई अन्य राज्यों में 18 संथाली, तीन हो और चार हिंदी नाटकों सहित 25 से अधिक शो आयोजित कर चुका है।
हिंदी में इस आदिवासी थिएटर ग्रुप के नाटक ‘फेविकोल’ का मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) और महिंद्रा ग्रुप ऑफ कंपनीज के लिए 2013 में दिल्ली में किया गया। इसके बाद अनुसूचित जनजातियों के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों- जल, जंगल और जमीन पर केंद्रित यह नाटक केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में राज्य संगीत नाटक अकादमी के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय रंगमंच समारोह में भी प्रस्तुत किया गया। उस साल इस ग्रुप को दिल्ली में महिंद्रा थिएटर एक्सीलेंस अवार्ड से नवाजा गया।
एमएएटी के सचिव, निदेशक और लेखक जीतराई हांसदा The Indian Tribal को बताते हैं कि झारखंड में जनजातीय मुद्दों को नाटकों के माध्यम से जानकारीपरक और मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत करने का कोई उचित मंच नहीं था। एमएएटी के उभार ने इस कमी को पूरा किया है।
इसी प्रकार एनएसडी के भारत रंग महोत्सव-2023 के लिए चयनित 80 नाटकों में एमएएटी का संथाली नाटक ‘जुगी त्रिओ’ शामिल रहा। समकालीन और पौराणिक रंगत वाला यह नाटक आदिवासी समाज में महिला अधिकारों पर गहराई से प्रकाश डालता है।
हो बोली में ऐतिहासिक नाटक ‘बिरसा मुंडा’ जब वर्ष 2018 में ओडिशा के राउरकेला स्थित सिविक सेंटर में प्रस्तुत किया गया तो हर कोई दंग रह गया।
जितराई गर्व से बताते हैं कि उनके अभिनय, पटकथा और निर्देशन को कटक, आगरा, रांची और जमशेदपुर में खूब सराहा गया है। झारखंड के केंद्रीय विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘बिरसा मुंडा कला सम्मान’, जमशेदपुर स्थित जया लक्ष्मी नाट्य कलामंदिर ने ‘नाट्य सम्राट’ जैसे पुरस्कारों से अलंकृत किया है। इसके अलावा, झारखंड सरकार की ओर से भी उन्हें राज्य पुरस्कार प्रदान किया गया।
आदिवासी निर्देशक-लेखक का हो बोली में ऐतिहासिक नाटक ‘बिरसा मुंडा’ जब वर्ष 2018 में ओडिशा के राउरकेला स्थित सिविक सेंटर में प्रस्तुत किया गया तो हर कोई दंग रह गया। हर तरफ इस नाटक की चर्चा हुई। यह बहुत अधिक कामयाब रहा।
हालांकि, हो में नाटक प्रस्तुत करना एमएएटी आदिवासी थिएटर ग्रुप के संथाली कलाकारों और कोरियोग्राफरों के लिए थोड़ा कठिन होता है, क्योंकि वे यह बोली लिखने, बोलने और समझने में पूरी तरह पारंगत नहीं हैं।
एमएएटी ग्रुप के कलाकार लक्ष्मण मरांडीह ने The Indian Tribal को बताया कि जब भी संथाली या हिंदी में कोई नया नाटक प्रस्तुति के लिए चुना जाता है तो उन्हें इसका रिहर्सल करने में आमतौर पर एक महीना लगता है, लेकिन हो बोली के नाटक के रिहर्सल के लिए उन्हें कम से कम डेढ़ महीने का समय खर्च करना पड़ता है।
एमएएटी की मुख्य कलाकार उर्मिला हांसदा बताती हैं कि नाटक की लिपि हमेशा देवनागरी में होती है, क्योंकि हम लोग ओल चिकी (संथाली लिपि) और वारंग सिटी यानी हो लिपि से वाकिफ नहीं हैं।
नाटकों को मनोरंजक बनाने के लिए उनमें संथाली नृत्यों जैसे फिरकल, लंगड़े और बहा को फिट करना अनुसूचित जनजाति समुदाय से आने वालीं एमएएटी की कोरियोग्राफर सबिता टुडू के लिए चुटकियों का खेल है। हां, हो शैली के नृत्य मगा सुसुन, हेरोह सुसुन और आनंदी सुसान कभी-कभी उनके लिए थोड़ी मुश्किल पैदा करते हैं। इसका कारण यह है कि हो शैली के डांस स्टेप संथाली से कुछ भिन्न होते हैं। टुडू कहती हैं कि इसके लिए हम कभी-कभी आसपास के हो लोगों से सहयोग लेते हैं।
हालांकि, हो नृत्य के साथ बजाया जाने वाला संगीत असामान्य नहीं लगता, क्योंकि दोनों के ऑर्केस्ट्रा में मदल, नगाड़ा, चर्चुरी, बांसुरी, केंद्री और घंटी जैसे एक ही तरह के वाद्य यंत्र होते हैं।
एमएएटी के दूसरे कोरियोग्राफर बताते हैं कि हो संगीत की धुन और लय अलग होती है। हालांकि हम चाईबासा में हो की टीम के साथ थोड़ा विचार-विमर्श करके अपने मंचन में उसका पुट डाल सकते हैं।
कैसे काम करता है एमएएटी?
- -एमएएटी के 30 आदिवासी कलाकार मुख्य रूप से किसान, मजदूर, छात्र और अन्य व्यवसायों से जुड़े लोग हैं।
- शो की संख्या के आधार पर एमएएटी को 50,000 रुपये से लेकर 1.50 लाख रुपये तक के बीच भुगतान हो जाता है। इसके प्रत्येक कलाकार को 1000 रुपये तक मानदेय दिया जाता है।
- यह झारखंड में अपनी तरह का अनूठा समूह होने का दावा करता है।
- जनजातीय रंगमंच कलाकारों के लिए अखिल भारतीय स्तर पर कोई एक प्रतिनिधि संस्था नहीं है।