पश्चिम बंगाल के जंगल महल को जानने वाले मधूसूदन हांसदा हमें हँड़िया की उत्पत्ति के बारे में संथाल लोक कथा में प्रचलित कहानी सुनाते हैं।
बुजुर्ग दंपती पिचु हराम और पिचु बूढ़ी, संथाली में जिन्हें आदम और हव्वा का दर्जा प्राप्त है, ने संसार को त्याग दिया था। वे दुनियादारी को पीछे छोडक़र महीनों तक यूं ही चलते रहे।
एक पहाड़ी झरने के पास पहुंचकर दोनों ने पानी पिया। इसे पीते ही वे दोनों बेसुध हो गए। जब उन्हें होश आया तो स्वभाव से जिज्ञासु पीचू बूढ़ी ने फौरन वहां तलाश शुरू कर दी। थोड़ी सी मेहनत के बाद उन्हें पानी के अंदर जमीन की सतह पर जड़ी-बूटियां मिल गईं और उन्होंने अंदाजा लगाया कि हो न हो, इन्हीं बूटियों के प्रभाव से झरने का पानी नशीला हुआ, जिसे पीकर उन दोनों को नशा हुआ।
बूढ़ी इन जड़ी-बूटियों को अपने साथ ले आईं और कई प्रयोगों ने उनके अंदाजे को सही साबित कर दिया। और, इस तरह इन जड़ी-बूटियों को चावल के साथ मिलाकर लोकप्रिय हँड़िया का जन्म हुआ।
जंगल महल में क्रिसमस, नया साल, संक्रांति और दनसाई जैसे मौकों और त्योहारों में जेल शोर की दावत के बिना कोई भी जश्न अधूरा ही माना जाता है। इसके जैसा आसानी से उपलब्ध भोजन कोई और नहीं है। जेल शोर मांस और आलू को चावल के साथ मिलाकर पकाया गया बेहद स्वादिष्ट मिश्रण है।
पर हांसदा बताना नहीं भूलते कि कितना भी स्वादिष्ट जेल शोर हो, बिना हँड़िया के बेकार ही रहता है।
हँड़िया चावल का पानी होता है जिसे खमीर उठाकर थोड़ा नशीला और ऊर्जावर्धक पेय तैयार किया जाता है, जो देश के इस हिस्से में आम तौर पर परोसा जाता है। हांसदा कहते हैं कि बाहरी लोग भी हँड़िया के बारे में सोच सकते हैं। यह केवल एक मादक पेय पदार्थ नहीं है, बल्कि आदिवासी समुदाय की परंपरा का हिस्सा है, जिसके बिना आप किसी मेहमान का स्वागत नहीं कर सकते। यह अपने पूर्वजों को प्रसन्न करने का जरिया भी है।
हँड़िया पश्चिम बंगाल के अलावा झारखण्ड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और ओडिशा में भी काफी प्रचलित है। झारखण्ड के युवा आदिवासी समाज सेवी लोकनाथ बानरा बताते हैं की चूँकि इसे हांड़ी में बनाया जाता है, इसलिए इसका नाम शायद हँड़िया पड़ा। वैसे इसके नाम की उत्त्पत्ति का कोई ठोस साक्ष्य नहीं है।
आदिवासी महिलाएं ज्यादातर इसे बनाती और बेचती हैं। हाट बाज़ारों में हँड़िया बेचती आदिवासी महिलाएं अक्सर दिखती हैं। इससे उन्हें आर्थिक मदद होती है और उनकी जीविका भी चलती है। पर आदिवासी पुरुषों द्वारा हँड़िया के अत्याधिक सेवन और इसे नशे के रूप में लेने के मामले भी आते रहते हैं।
डिंग डोंगोह बेल्स
चूँकि जश्न का समय है, इसलिए लगे हाथों जंगल महल के एक स्वादिष्ट स्नैक्स के बारे बताते चलें। सीधे शब्दों में कहें, तो यह एक मोमो है। जंगल महल के आदिवासियों द्वारा तैयार मीठे और नमकीन पकौड़े भी इन्हें कह सकते हैं। डोंगोह जंगल महल की मोदक है, लेकिन इसका स्वाद नमकीन होता है। कम जानकार लोग इसे मीठी पकौड़ी भी कहते हैं। इसे बनाने की विधि भी आसान है। पहले चावल के आटे को गूंथ कर चिकना और ढीला कर लेते हैं। इसके बाद छोटी-छोटी लोई बनाकर इन्हें बेला जाता है और इनमें गुड़ तथा चुटकी भर नमक भरकर गोल कर लिया जाता है और फिर आंच पर भांप से सेंकते हैं। पूरे जंगल महल क्षेत्र में उत्सवी मौकों पर इसे परोसा जाता है।
(द इंडियन ट्राइबल किसी भी प्रकार के मदिरा सेवन का समर्थन नहीं करता है)