कंधमाल जिले के दूरदराज के फिंगिरिया जंगलों में किसान साल, चिली, कुरेई और बाटी के पेड़ों की जड़ों से अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। वे इन पेड़ों की जड़ों को एकत्र करते हैं और उन्हें दिलचस्प आकार में ढालकर पॉलिश करके खूबसूरत बना देते हैं। फिर हस्तशिल्प के रूप में बाजार में अच्छे दामों में बेचते हैं।
पेड़ों में साल की लकड़ी बहुत मजबूत होती है। इसलिए शिल्प बनाने के लिए सबसे अनुकूल भी होती है। जंगलों में 10 से 12 वर्षों में सैकड़ों बार बारिश की बौछारें झेलकर इस लकड़ी में कीट-प्रतिरोधी गुण विकसित हो जाते हैं। इसलिए यह सालों-साल खराब नहीं होती।
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ओडिशा के कंधमाल में कारीगर पेड़ों की जड़ों को स्टैंड, मूर्तियां, सजावटी सामान और अन्य जरूरत की वस्तुओं में ढालते हुए उन्हें पॉलिश कर चमकाते हैं।
आदिवासी कारीगर मनंका कामा बताते हैं कि दूसरी लकडिय़ों के मुकाबले लगातार बारिश में भी कठोर साल की लकड़ी खराब नहीं होती। यही नहीं, बारिश का पानी साल की जड़ों में धीरे-धीरे रिसता हुआ पहुंचता है और उन्हें प्राकृतिक रूप से दिलचस्प आकृतियों ढाल देता है। जैसे ही माहिर कारिगरों की उंगलियां इन जड़ों को छूती हैं, उन पर अपना हुनर उड़ेलती हैं तो ये सूखी लकडिय़ां जीवंत हो उठती हैं।
डोंगरिया कोंध आदिवासियों में शिल्पयों के दो समूह हैं। एक फिंगिरिया में पुरुष समूह जय हनुमान फेडरेशन (जेएचएफ) है और दूसरा समूह डांगारिकिया में महिलाओं का है, जिसका नाम मां मंगला वुडकार्विंग प्रोड्यूसर्स ग्रुप (एमएमडब्ल्यूपीजी) है। महिलाओं का ग्रुप जहां जड़ों को पॉलिश कर चमकदार आकृतियों में ढालता है, वहीं पुरुष कारिगरों का समूह जड़ों से लकड़ी के स्टैंड, मूर्तियां, सजावटी और उपयोगी वस्तुएं बनाता है।
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जेएचएफ समूह के रवींद्र कनहर कहते हैं कि जड़ें मुड़ी-तुड़ी लहराती सी होती हैं, जिससे हम आकर्षक कलाकृतियां ढाल देते हैं। इसके अलावा, हम गणभरी, पियासाला, सागौन और शिशु के पेड़ों की सूखी लकडिय़ां एकत्र कर उनसे भी खूबसूरत हस्तशिल्प तैयार करते हैं।
महिला और पुरुषों के इन दोनों समूहों का गठन ओडिशा रूरल डेवलपमेंट एंड मार्केटिंग सोसाइटी (ओआरएमएएस) द्वारा किया गया था, जिसने उनके शिल्प कौशल को निखारने, कलाकृतियों को सुंदर बनाने और बेहतर बाजार उपलब्ध कराने के लिए 2.5 लाख रुपये का निवेश किया। दोनों समूहों को 2005 में जिला उद्योग केंद्र में एक महीने का कौशल प्रशिक्षण दिया गया था।
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ओआरएमएएस के अधिकारी बिक्रम तराई कहते हैं कि जिला ग्रामीण विकास एजेंसी (डीआरडीए), कंधमाल ने ही पेड़ों की जड़ों और उनसे बनी कलाकृतियों को सुरक्षित रखने के लिए 2005 में एक भवन बनवाया था।
अधिकारी बताते हैं कि ओआरएमएएस ही आदिवासी समूहों के बनाए लकड़ी के उत्पादों की बिक्री कराता है। यही नहीं, कटक में बाली यात्रा, भुवनेश्वर में अंगुल तोशाली मेला के विश्वकर्मा पल्लीश्री मेला (नाल्को), संबलपुर में शीतला षष्ठी मेला और इसी तरह के अन्य मेलों के दौरान स्टॉल लगाने की अधिकांश जिम्मेदारी भी वही उठाता है।
इसके अलावा, जनजातीय विकास सहकारी निगम, ओडिशा और भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ भी आदिवासियों के हस्तशिल्प की मार्केटंग करने में मदद करते हैं।
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प्रत्येक कुशल कारीगर महीने में लगभग 15,000 रुपये कमा लेता है, जबकि अकुशल श्रमिकों को 6,000-7,000 रुपये मिल जाते हैं।
मास्टर शिल्पकार और आजीविका सहायता पर्सन आलोक बेहरा कहते हैं कि जेएचएफ एक महीने में औसतन 40 से अधिक आइटम बना लेता है। जब कभी विशेष ऑर्डर आता है तो तीन कारिगरों की टीम बनाकर उन्हें कार्य सौंप दिया जाता है। इस तरह, प्रत्येक कुशल कारीगर महीने में लगभग 15,000 रुपये कमा लेता है, जबकि अकुशल श्रमिकों को 6,000-7,000 रुपये मिल जाते हैं। इस दूरदराज के क्षेत्र के आदिवासियों को जेएचएफ के जरिए आजीविका के साथ-साथ अनुभव और कुछ नया सीखने का मौका मिलता है।