आदिवासी समाज में अपने अद्वितीय योगदान के लिए अनूप रंजन पांडे को 2019 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया था।
पांडे काफी लोकप्रिय हो चुके बस्तर बैंड के संस्थापक और समन्वयक हैं। यह बैंड पारंपरिक संगीत, नृत्य और नाटक प्रस्तुत करने वाला आदिवासी कलाकारों का समूह है। इस बैंड ने विदेशों में भी खास पहचान बनाई है। अपनी अनूठी स्वर लहरियों के साथ-साथ यह दृश्य प्रदर्शन के जरिए भी अलग छाप छोड़ता है।
पांडेय आशा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि वह सरकार की मदद से आदिवासियों के सैकड़ों अनूठे संगीत वाद्ययंत्रों और स्वदेशी कला को मुख्यधारा में लाकर संरक्षित करने में सफल होंगे।
अनूप पांडे कहते हैं कि उनका बैंड अपनी मिट्टी से जुड़ा है। उसने इन लोक कलाओं में कोई संशोधन नहीं किया और न ही आधुनिकता का तडक़ा लगाया है। मौलिकता को बरकरार रखा गया है। यह सच है कि आज के आधुनिक जमाने में ये लोक कलाएं अपने आप को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं।
स्टेज पर धूम
छोटा सा समूह एक साथ मिलकर रंगीन पारंपरिक पोशाक और मुकुट पहनकर अपनी परफॉर्मेंस देता है। कलाकार एक घंटे के कार्यक्रम में विभिन्न बोलियों में सात से आठ लोक गीत प्रस्तुत करते हैं।
बस्तर बैंड मौसम के देवता की प्रशंसा में गीत और नृत्य-नाटक पेश करता है। इसके अलावा ऋतुओं के आगमन, फसल कटाई और अन्य पारंपरिक समारोह आदि जश्न के मौकों पर बैंड लोक प्रस्तुति देता है।
यह बैंड बस्तर के संगीत स्पेक्ट्रम के संक्षिप्त परिचय की तरह है। अपने 40 से अधिक सदस्यों की मंडली वाले बैंड में क्षेत्र की मुरिया, मडिय़ा, गोंड आदि लगभग सभी जनजातियों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं और मंच पर वे जिस विविधतापूर्ण संगीत का प्रदर्शन करते हैं, उससे देख और सुनकर श्रोता मुग्ध हो जाते हैं।
छोटे समूह में कलाकार रंगीन पारंपरिक पोशाक और सिर पर बड़ा सा मुकुट पहनकर प्रदर्शन करते हैं। एक घंटे की प्रस्तुति में संभवत: सात से आठ लोक गीत अलग-अलग बोलियों में गाए जाते हैं। इन गीतों में पीढिय़ों से चली आ रही अद्वितीय प्रतिभा के दर्शन होते हैं। एकल गीत में अलग-अलग वाद्ययंत्रों पर पांच अलग-अलग धुनें निकाली जा सकती हैं और नृत्यों में जटिल फुटवर्क होता है।
विभिन्न जनजातियां, अनेक कलाएं
प्रत्येक जनजाति की अपनी विशिष्ट संगीत परंपराएं और नृत्य कला के विभिन्न रूप होते हैं, जिनमें उनके समृद्ध सामाजिक इतिहास और धार्मिक रीति-रिवाज झलकते हैं।
पांडे कहते हैं कि गौर, कसार, हल्की मांडरी, परब, धुर्वा, गेदी और बाइसन हॉर्न मडिय़ा नृत्य दर्शकों को खूब लुभाते है और विशिष्ट शैली के कारण बेहद लोकप्रिय हैं। पद्म श्री पुरस्कार विजेता ने कहा कि कार्यक्रमों के दौरान आदिवासी कलाकारों द्वारा तार, तुरही और ढोल जैसे 75 लोक वाद्ययंत्रों का भी उपयोग किया जाता है। उदाहरण के तौर पर वह एक दुर्लभ बांस वाद्य यंत्र का वर्णन करते हैं जो हवा के माध्यम से घुमाने पर एक अलग तरह की ध्वनि उत्पन्न करता है।
लोकप्रिय आदिवासी ताल वाद्य यंत्रों में गाटा परे, नर परे, पेन ढोल, मंदार ढोल, पेंडुल ढोल, हल्की मंदारी और ओझा परे शामिल हैं। कुछ वाद्ययंत्र तबले और नगाड़े से मिलते-जुलते होते हैं, जो जुड़वा हाथ के ढोल की जोड़ी होती है। इनमें कुंडिड, निसान, गोटी बाजा, मुंडा बाजा और मृदंग प्रमुख हैं।
पांडे के अनुसार मोहरी, देव मोहरी, सुलुद, अलगोजा, बीन, कुंक और बाण कुछ अनोखे वायु वाद्ययंत्र हैं, जबकि तार वाले वाद्ययंत्रों में सारंगी, किकिद, धूसीर और रामबाजा हैं।
पांडे बताते हैं कि इनमें से कई वाद्ययंत्र ऐसे हैं जिनसे बस्तर के आदिवासी युवा भी परिचित नहीं हैं। उन्हें सिर्फ पुरानी पीढ़ी के लोग ही जानते हैं। कुछ कलाकारों का नाम लेते हुए उनका कहना है कि बस्तर बैंड का उद्देश्य इन कलाओं को पूरी तरह से लुप्त होने से बचाना है।
पांडे कहते हैं कि बुधराम सोढ़ी, दुल्गो सोढ़ी, रंगबती बघेल, काचरी सलाम, आयता नाग, जमुना नाग, नावेल कोर्रम, सोनमती नाग, सुलमती पोटाई, जयमती दुग्गा, रामसिंह सलाम, जुगधर कोर्रम, पंकुरम सोढ़ी, मंकू नेताम, मिसरुराम बघेल सुकालूराम, खुर्सी कोर्रम, विक्रम यादव और छन्नू ताती जैसे कुछ प्रमुख लोक कलाकार हैं, जो अपने प्रदर्शन से लोगों के दिलों में जगह बना जाते हैं।
बस्तर बैंड ने जहां कहीं भी प्रस्तुति दी, वहां अपनी तरह के अनूठे प्रदर्शनों से दर्शकों पर अलग छाप छोड़ी है। पांडे बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि जितनी सराहना उनके बैंड को मिल रही है, इससे उन्हें आशा है कि लोक परंपराएं अभी जीवित रहेंगी।