गेहूं के बिना भोजन? यह शहरी भारत में उन अधिकांश लोगों को लासा मुक्त आहार की तरह लग सकता है, जिनके लिए गेहूं का आटा दैनिक खाने का अभिन्न हिस्सा है, लेकिन गुजरात के आदिवासी समाज की थाली का यह आकर्षक पहलू है।
आदिवासी लोगों की खाने की आदतें बड़ी अनूठी होती हैं। वे प्रकृति के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं। उनके व्यंजन भी आसपास के क्षेत्र में आसानी से उपलब्ध सामग्री से तैयार किए जाते हैं।
गुजरात के ट्राइबल रिसर्च एंड ट्रेनिंग सोसाइटी के शोध अधिकारी देवचंद वहोनिया कहते हैं कि व्यंजनों के आधार पर राज्य की आदिवासी बेल्ट को तीन क्षेत्रों में बांटा जा सकता है। उत्तर में यह राजस्थान की सीमा के पास अंबाजी से दाहोद तक फैला है। मध्य प्रदेश की सीमा से लगता दाहोद जिला मध्य क्षेत्र में आता है इसके बाद महाराष्ट्र की सीमा के पास दक्षिण गुजरात का डांग जिला है।
वहोनिया कहते हैं कि उत्तर और मध्य गुजरात की शुष्क जलवायु का प्रभाव यहां के आदिवासी लोगों के व्यंजनों में स्पष्ट झलकता है। भरपूर पानी वाले दक्षिण गुजरात क्षेत्र में आदिवासी समुदायों द्वारा तैयार किए जाने वाले खाने अन्य दो क्षेत्रों से बिल्कुल अलग होते हैं। दाहोद की एक जनजाति से ताल्लुक रखने वाले वाहोनिया कहते हैं कि आदिवासी थाली सीधे उनकी खेती से जुड़ी होती है।
गर्मियों के दौरान उत्तर और मध्य गुजरात में आदिवासी लोग खाना पकाने में महुआ तेल (मधुका लोंगिफोलिया) का उपयोग करते हैं। इससे उनके भोजन में विशिष्ट स्वाद आ जाता है। मानसून और सर्दियों में वे खाना पकाने में स्थानीय स्तर पर खूब उपलब्ध तिल और मूंगफली का तेल इस्तेमाल करते हैं। उत्तरी क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों की थाली में मौसमी सब्जियां, मसालेदार उड़द या चने की दाल और नरम पीली मक्का की मोटी रोटी होती है। शाम को आदिवासी लोग उबालने के बाद कुचलकर तैयार किया गया मक्का का हल्का खाना और ताजा दूध लेते हैं।
मध्य क्षेत्र के व्यंजन भी कुछ-कुछ ऐसे ही होते हैं, लेकिन वे रोटी में सफेद मक्का का उपयोग करते हैं। दाहोद में आदिवासी लोग दाल-पनिया खाते हैं। पनिया सफेद मक्का के आटे से पाव या ब्रेड की तरह बनती है। इसे मसालेदार उड़द या चना दाल के साथ गर्मागर्म परोसा जाता है।
गुजरात और देश के अन्य हिस्सों के विपरीत आदिवासी लोग गेहूं नहीं खाते हैं। गुजराती आदिवासी व्यंजनों में गेहूं का कोई स्थान नहीं है। दक्षिण क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी लोगों की थाली में अधिक वस्तुएं होती हैं। यहां धान और बांस प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। वहोनिया कहते हैं कि चावल के आटे से बनी रोटी, चटपटी उड़द या चना दाल, बांस के पौधे की सब्जी और इसी का अचार बड़ा स्वादिष्ट लगता है।
सरदार सरोवर बांध के पास वल्लभभाई पटेल की मूर्ति स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के करीब एकता नर्सरी में पर्यटकों को आदिवासी थाली परोसी जाती है अपना छोटा सा होटल चलाने वाली आदिवासी महिला स्वयं सहायता समूह की सदस्य शिलाबेन तड़वी कहती हैं कि यहां की थाली में पारंपरिक गुजराती खाने के साथ आदिवासी व्यंजनों जैसे नागली पापड़ और रोटलो (रोटी), बांस का अचार और मक्का की रोटी भी शामिल होती है।
डांग जिले के अमधा गांव के आदिवासी मुखिया महेश मणिलाल कहते हैं कि उड़द की दाल के साथ नागली या रागी रोटलो यहां लोकप्रिय आदिवासी खाना है आदिवासी लोग नागली से पापड़ भी बनाते हैं। यदि यहां के प्रसिद्ध डांगी व्यंजनों का स्वाद नहीं चखा तो गुजरात के एकमात्र हिल स्टेशन सापुतारा की यात्रा अधूरी ही मानी जाती है।
अपना भोजनालय चलाने वाली आदिवासी महिला स्वयं सहायता समूह की सदस्य शिलाबेन तड़वी कहती हैं कि यह थाली पारंपरिक गुजराती खाने के साथ आदिवासी व्यंजन नागली पापड़ और रोटलो, बांस अचार तथा मकाई रोटलो की मिली-जुली डिश है।
विशेष अवसरों पर आदिवासी लोग मटन, चिकन और मछली भी खाते हैं। अधिकांश मांसाहारी भोजन भी उसी तरह तैयार किया जाता है जैसे शाकाहारी। गुजरात में बहुत से लोग विशेष रूप से आदिवासी क्षेत्रों में मसालेदार मटका चिकन खाने के लिए जाते हैं। यह चिकन आमतौर पर टेराकोटा के बर्तन में अलाव पर पकाया जाता है, जो बहुत ही स्वादिष्ट लगता है।
शिलाबेन कहती हैं कि हिबिस्कस फूल, शहद और नींबू से तैयार आदिवासी शर्बत स्थानीय और विदेशी पर्यटकों के बीच बहुत लोकप्रिय है।
यहां का एक और लोकप्रिय पेय है महुआ फूल से बनी देशी शराब। आदिवासी संस्कृति में जन्मदिन समारोह से लेकर मृत्यु भोज तक में यह शराब विशेष तौर पर परोसी जाती है।
खाना पकाने में इस्तेमाल होने वाला महुआ तेल गुजरात के आदिवासी समुदायों के लिए घी का बेहतरीन विकल्प है। दिवाली के मौके पर महुआ तेल के दीये ही जलाए जाते हैं। आदिवासियों के धार्मिक अनुष्ठान भी इस तेल के बिना नहीं होते। अंतिम क्रिया के दौरान दाह संस्कार के लिए घी के बजाय महुआ तेल का ही उपयोग किया जाता है।
यदि प्रकृति के साथ लोगों का घनिष्ठ संबंध देखना है तो गुजरात की आदिवासी थाली पर नजर डाल लीजिए। यह आज भी लोगों के प्रकृति से जुड़ाव का जीता-जागता उदाहरण है।