भले ही झारखंड वर्ष 2000 तक बिहार का हिस्सा था, लेकिन कई लोगों ने आजादी से पहले ही इसे अलग राज्य बनाए जाने का सपना देखा था। इसकी आवाज सबसे पहले ईसाई मिशनरियों ने 1928 में साइमन कमीशन को एक ज्ञापन देकर उठाई थी, जिसमें छोटानागपुर-संथाल परगना बेल्ट को अलग करने की बात थी, लेकिन इस मांग को ठुकरा दिया गया।
रांची आर्चडायसी के बिशप थियोडोर मस्कारेन्हास कहते हैं कि इस क्षेत्र के चहुंओर विकास के लिए चर्च ने हमेशा अलग झारखंड राज्य का समर्थन किया। इस मुद्दे को लेकर वे साइमन कमीशन के पास भी गए। आदिवासी महासभा पहला ऐसा राजनीतिक संगठन था जिसने वर्ष 1936 में अलग राज्य के गठन की मांग की महासभा ने बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल क्षेत्रों को मिलाकर नया राज्य बनाने की बात कही।
जब 1937 के चुनावों में पहली बार कांग्रेस की सरकार बनी, तो आदिवासी महासभा के माध्यम से मिशनरियों ने फिर अपनी मांग को जोरशोर से उठाया। उस समय आदिवासी महासभा के मुस्लिम लीग से काफी मधुर संबंध थे।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जब 15 मई, 1943 को झारखंड की वर्तमान राजधानी रांची की यात्रा की, तो उन्होंने आदिवासी महासभा पर अंग्रेजों का समर्थन करने का आरोप लगाया और कहा कि महासभा उन पर अपनी मर्जी नहीं थोप सकती।
आदिवासी महासभा ने वर्ष 1946 में मुस्लिम लीग की मदद से एक संप्रभु आदिबिस्तान के विचार को आगे बढ़ाया। उस वर्ष के चुनावों में राष्ट्रवादी ताकतों से हारने के बाद महासभा ने हसन सुहरावर्दी के नेतृत्व वाली बंगाल मुस्लिम लीग के साथ हाथ मिला लिया और अलग राज्य बनाने के लिए संयुक्त रूप से सार्वजनिक सभाएं आयोजित कीं।
आजादी के बाद कांग्रेस ने हालांकि भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर राज्यों का सीमांकन करने का निर्णय लिया, लेकिन नेहरू ने अलग झारखंड राज्य के विचार को यह कहकर ठुकरा दिया कि इससे देश की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो सकता है।
संविधान सभा के अंतरिम अध्यक्ष सच्चिदानंद सिन्हा ने भी यह कहकर एक तरह नेहरू से सहमति जताई कि यह क्षेत्र मुगल सम्राट अकबर के समय और मौर्य साम्राज्य के शासन के दौरान से ही बिहार का अभिन्न हिस्सा रहा है।
आजादी के बाद का संघर्ष
इस बीच, आदिवासी महासभा ने अपना नाम बदलकर अखिल भारतीय झारखंड पार्टी (एआईजेपी) कर लिया, जिसका उद्देश्य आदिवासियों के अधिकारों के लिए लडऩा था। जब संविधान लागू किया जा रहा था तब एआईजेपी ने संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद से बिहार के दक्षिणी हिस्से को अलग कर झारखंड राज्य बनाने का आग्रह किया। यही मांग फिर 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष भी रखी गई थी। दोनों मोर्चों पर इस मांग को पूरा नहीं किया गया।
वर्ष 1963 में जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व वाली एआईजेपी के कांग्रेस में विलय के साथ ही अलग राज्य का आंदोलन बिखर गया। मुंडा लोकसभा में कांग्रेस के सदस्य बने, जबकि उनकी पत्नी जहांआरा ने राज्यसभा में बिहार का प्रतिनिधित्व किया।
द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ जयपाल सिंह मुंडा के लेखक संतोष किडो कहते हैं कि जयपाल सिंह अक्सर कहा करते थे कि वह कांग्रेस का ढोल पीटकर झारखंड को हासिल कर लेंगे, लेकिन 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने सिंह की बात पर गौर करने से इनकार कर दिया और इसी के साथ जयपाल सिंह का राजनीतिक करियर भी समाप्त हो गया।
साल 1952 में मध्यवर्गीय आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली निजी सेना के लड़ाकों ने अलग संप्रभु कोल्हान के लिए नये सिरे से प्रयास किया। वे इस मामले को महारानी के समक्ष रखने के लिए लंदन भी गए।
विकट परिस्थितियों से सामना
चाईबासा कलक्ट्रेट के एक क्लर्क केसी हेम्ब्रम ने वर्ष 1981 में एक स्वतंत्र संप्रभु कोल्हान राज्य की घोषणा कर दी। इसके बाद वह शीघ्र ही तेजतर्रार लेकिन साहसी राजनीतिक लोगों के साथ मिल गया। उन्होंने कोल्हान को स्वतंत्र राष्ट्रों की सूची में शामिल करने के लिए जिनेवा और लंदन में ज्ञापन भी दिए। लंदन और जिनेवा से लौटने पर उन्हें सलाखों के पीछे डाल दिया गया। हालांकि, गहन पूछताछ के बाद उनके खिलाफ राजद्रोह के आरोप हटा दिए गए। झारखंड के पूर्व गृह सचिव और भाजपा के वरिष्ठ नेता जेबी तुबिद कहते हैं कि वे मासूम लोग थे, जो केवल कोल्हान की बेहतरी चाहते थे।
विद्रोह और गुस्से का एक कारण था। विशेषकर साहूकारों और ठेकेदारों द्वारा आदिवासियों का शोषण किया जाता था। बेरोजगारी और गरीबी उन्हें आजीविका की तलाश में अपने घरों से भागने के लिए मजबूर कर देती थी। वे अपनी आवाज भी नहीं उठा पाते थे। बहुत ही कम लोग थे जो उनके दर्द को समझना और सुनना चाहते थे।
अलग राज्य के आंदोलन में नया मोड़ उस समय आया जब 1972 में एके रॉय और बिनोद बिहारी महतो ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) का गठन किया। पार्टी का प्राथमिक उद्देश्य साहूकारों और माफिया डॉन से लडऩा था, जो खासकर कोयला बेल्ट में सक्रिय थे।
अपनी इस संघर्ष यात्रा के दौरान उन्हें एक फायरब्रांड युवा शिबू सोरेन मिला, जिसके पिता को साहूकारों ने मार डाला था। इसके बाद यह तय किया गया कि युवा शिबू सोरेन के नेतृत्व में आगे की लड़ाई लड़ी जाएगी।
आंदोलन ने पकड़ी राजनीतिक दिशा
झामुमो ने असम में छात्र आंदोलन से प्रेरित होकर वर्ष 1980 के दशक के मध्य में अपना छात्र संगठन बनाने की दिशा में काम करना प्रारंभ किया। विचार-विमर्श के बाद यह सहमति बनी कि नया छात्र संगठन झामुमो विंग के बजाय एक स्वतंत्र संगठन के रूप में कार्य करेगा। इस तरह यह संगठन विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़े समान विचारधारा वाले लोगों को एकजुट करने का मार्ग प्रशस्त करेगा।
झामुमो, आजसू और ऐसे ही कई अन्य संगठनों के अभियान, विशेष रूप से उनके द्वारा की गई आर्थिक नाकेबंदी ने धीरे-धीरे पटना और दिल्ली को गहराई से सोचने के लिए मजबूर कर दिया। अंतत: नया राज्य अस्तित्व में आया।
आखिरकार 22 जून 1986 को सूरज सिंह बेसरा की अध्यक्षता में अखिल झारखंड छात्र संघ (आजसू) का गठन किया गया। बेसरा बिहार विधानसभा के सदस्य बने बेसरा याद करते हुए कहते हैं कि छात्रों ने कैसे एक मजबूत जन आंदोलन खड़ा किया, यह जानने के लिए हमने कई बार असम का दौरा किया।
आजसू के अस्तित्व में आने के बाद झारखंड राज्य के आंदोलन को वास्तविक गति मिली। बेसरा 1990 में विधायक बन गए। लालू प्रसाद यादव की सरकार ने 12 अगस्त, 1991 को बिहार विधानसभा में छोटा नागपुर- संथाल परगना विकास प्राधिकरण का नाम बदलकर झारखंड क्षेत्र विकास परिषद कर दिया।
बेसरा कहते हैं कि सरकार के इस कदम का विरोध करने वाले वह अकेले विधायक थे। उन्होंने झारखंड राज्य का दर्जा देने वाला विधेयक लाने की मांग उठाई झामुमो के सभी 19 विधायक भी चुप्पी साधे रहे। समर्थन नहीं मिलने पर बेसरा ने अपना इस्तीफा अध्यक्ष गुलाम सरवर को सौंप दिया। उन्होंने इस्तीफा तुरंत स्वीकार कर लिया।
झामुमो, आजसू और ऐसे कई संगठनों के अभियान विशेष रूप से उनकी आर्थिक नाकेबंदी की रणनीति धीरे-धीरे पटना और दिल्ली में सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए चिंता का सबब बन गई। जनता का मूड भांपते हुए भारतीय जनता पार्टी ने भी वनांचल राज्य का आंदोलन शुरू कर दिया।
झामुमो संसद के साथ-साथ बिहार विधानसभा में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही। इसके सांसदों ने 1993 में पीवी नरसिम्हा राव सरकार को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिससे एक बड़ा विवाद भी खड़ा हो गया था।
राष्ट्रव्यापी राजनीतिक उथल-पुथल के बीच 30 जुलाई, 1995 को झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के नेतृत्व में झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद का गठन किया गया। इसे अलग झारखंड राज्य के गठन की दिशा में एक बड़े कदम के रूप में देखा गया।
बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों और लालू प्रसाद तथा उनके सत्तारूढ़ राजद के बैकफुट पर होने के कारण 17 जुलाई, 1997 को बिहार विधानसभा में एक अलग झारखंड राज्य बनाने का प्रस्ताव पारित किया गया। विस्तृत चर्चा के बाद 15 नवंबर 2000 को एक नए राज्य का जन्म हुआ।
दो दशक बाद आज झारखंड एक ऐसा युवा राज्य है, जो अपने बारे में स्वयं सोच-विचार करता और नीतियां बनाता है।
Photo Credit : Kislaya, Jagran