वह असम के चाय बागान में काम करने वाली श्रमिकों के बीच आइकन की तरह हैं, जो उन्हें मासिक धर्म के दौरान स्वयं की देखभाल और साफ-सफाई के महत्व को समझाती हैं।
चाय बागानों में काम करने वाली ऐसी बहुत सी महिलाएं हैं जिनकी फुर्तीली अंगुलियां चाय की कोमल पत्तियों को तो आसानी से तोड़ लेती हैं, लेकिन शिक्षा और सामान्य समझ की कमी के कारण वे मासिक धर्म के बारे में अंधविश्वास का शिकार हैं और बेहतर तरीके से अपनी देखभाल नहीं कर पातीं। ऐसे में शिखा देवी उनकी मदद के लिए आगे आई हैं। वह लगभग 15 वर्षों से चाय बागानों की आदिवासी महिला श्रमिकों को मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता की आवश्यकता के बारे में जागरूक कर रही हैं। डिगबोई, डिब्रूगढ़, जोरहाट और सोनितपुर जैसे इलाकों में शिखा अब तक 500 से अधिक महिलाओं को इस अज्ञानता के अंधेरे से निकाल चुकी हैं।
“शिखा कहती हैं कि उन्होंने महिलाओं को सैनिटरी पैड बांटे हैं, लेकिन उनका ध्यान महिलाओं की मानसिकता बदलने पर केंद्रित है, क्योंकि इससे उनके बीच स्थायी बदलाव लाया जा सकेगा। यही सबसे महत्वपूर्ण है, लेकिन उनकी यह यात्रा लंबी और थोड़ी कठिन है।”
असम के डिगबोई में एक बेहद धार्मिक और रूढि़वादी आदिवासी परिवार में जन्मी शिखा देवी ने कभी सोचा भी नहीं था कि उनकी जिंदगी इतनी उथल-पुथल भरी होगी। वर्ष 2004 में उनके साथ एक भयानक दुर्घटना घटी, जिससे वह पैर से अपाहिज हो गई और उन्हें आंशिक रूप से लकवा भी मार गया।
हालांकि उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी मां के लगातार प्रोत्साहित करने से वह दोबारा अपने पैरों पर खड़ी होने में सफल रहीं। शिखा कहती हैं कि मेरी मां ने मुझे घर से बाहर निकलने और जीवन में विशेष उद्देश्य के साथ कुछ नया करने के लिए प्रेरित किया। वर्ष 2006 में वह नई दिल्ली जाने और वहां दक्षिणी दिल्ली में स्थित एक पॉलिटेक्निक से मास कम्युनिकेशन में डिप्लोमा करने में कामयाब रहीं। साथ ही साथ उन्होंने ब्रिटिश काउंसिल से भी एक कोर्स किया।
इसके बाद जब शिखा अपने गृह राज्य लौटीं, तो उन्हें एक ऐसे परिचित व्यक्ति से मिलने का मौका मिला जो बाढ़ पीढि़तों को राहत पहुंचाने का काम काम करते थे। इसी दौरान शिखा का ध्या चाय बागानों में काम करने वाली महिलाओं की दयनीय स्थिति की तरफ गया। इनसे बातचीत में शिखा को महसूस हुआ कि ये महिलाएं सैनिटरी पैड तक की प्राथमिक सुविधा से वंचित हैं। उनके बीच मासिक धर्म के बारे में गलत धारणाएं व्याप्त हैं और वे अंधविश्वास की जंजीर में जकड़ी हैं। इसके कारण वे चिकित्सा की आपात स्थिति में भी डॉक्टरों के पास नहीं जातीं।
शिखा बताती हैं कि इसके बाद से उन्होंने इन महिलाओं को मासिक धर्म, प्रजनन स्वास्थ्य और स्वच्छता की जरूरत के बारे में जागरूक करने और स्वच्छता उपाय अपनाने को प्रेरित करने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन करना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने रे फाउंडेशन नाम से एक छोटा सा ट्रस्ट स्थापित किया। लगभग 40 वर्ष की शिखा महंगे रेडीमेड सेनेटरी पैड से बचने के लिए महिलाओं को पुन: प्रयोग किए जा सकने वाले कपड़े के सेनेटरी पैड बनाने का प्रशिक्षण भी दे रही हैं।
शिखा कहती हैं कि उनके प्रयास कितने कामयाब रहे, इसका वास्तविक अंदाजा लगाना तो कठिन है, लेकिन वह विश्वास के साथ कह सकती हैं कि चाय बागानों और आसपास के क्लीनिकों में काम करने वाले डॉक्टर बताते हैं कि पहले के मुकाबले अब मासिक धर्म से संबंधित समस्याओं और बीमारियों के बारे में सलाह-मशविरे के लिए आने वाली महिलाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। वह गर्व से कहती हैं कि महिलाएं अब मासिक धर्म के स्वास्थ्य के बारे में पहले से अधिक जागरूक हैं और खुलकर बात करने लगी हैं।
“वह पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती हैं कि लोगों को जीवन की चुनौतियां स्वीकार करने, उनकी इन चुनौतियों के पीछे छुपे अवसरों की खोज करने और भविष्य को खूबसूरत बनाने के लिए प्रेरित करना ही उनका मिशन है।”
क्षेत्र में इस अनजानी सी सामाजिक कार्यकर्ता ने देहिंग पटकाई राष्ट्रीय उद्यान के पास छोटे से सोराइपुंग गांव में कार्यशालाएं आयोजित की हैं।
उन्होंने समाज कल्याण विभाग के अनुरोध पर कार्बी आंगलोंग में विशेष रूप से बोडो और कार्बी आदिवासी महिलाओं के लिए मासिक धर्म स्वच्छता कार्यशाला भी आयोजित की है। शिखा मुस्कुराते हुए कहती हैं कि गांव और कुछ बागानों में उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से दिव्यांग कुछ महिलाओं को मासिक धर्म स्वच्छता के बारे में जागरूक करने का भी सौभाग्य मिला है।
शिखा के इन महत्वपूर्ण प्रयासों को राष्ट्रीय मानवाधिकार और शिकायत आयोग ने भी सराहा है, जिसने उन्हें पिछले वर्ष महिला दिवस के मौके पर उल्लेखनीय कार्यों के लिए सम्मानित किया।
शिवसागर के श्रद्धेय शिव डोल के पुजारी परिवार से ताल्लुक रखने वाली शिखा के अनुसार बचपन से ही वह सभी तरह की परिस्थितियों को समान भाव स्वीकार करती आई हैं। इसका श्रेय वह विपरीत परिस्थितियों के हिसाब से खुद को आसानी से ढाल लेने की अपनी आदत को देती हैं।
वह कहती हैं कि दिल्ली में रहने के दौरान उन्हें कई ऐसे लोगों से मिलने का अवसर मिला, जिन्होंने व्यक्तिगत बाधाओं के खिलाफ हंसकर जीत हासिल की थी ऐसे लोगों को देखकर उनके अंदर भी जोश भर गया और इस तरह उनका भाग्य बदल गया। शिखा यहीं रुकने वाली नहीं हैं। वह पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती हैं कि लोगों को जीवन की चुनौतियां स्वीकार करने, उनकी इन चुनौतियों के पीछे छुपे अवसरों की खोज करने और भविष्य को खूबसूरत बनाने के लिए प्रेरित करना ही उनका मिशन है।