उद्यमशील और विविधतापूर्ण- वास्तव में ये दो शब्द छत्तीसगढ़ की आदिवासी आबादी को परिभाषित करने के लिए काफी हैं। यदि इनमें दो शब्द और जोड़ दूं, तो वे होंगे स्वाभिमानी और रक्षक। सर्वविदित तथ्य यह है कि इस युवा राज्य की एक तिहाई से अधिक आबादी आदिवासी है। करीब से देखेंगे तो पाएंगे कि अधिकांश आदिवासी शहरी जीवन से दूर अपनी जड़ों के करीब उन वृक्षों के दरम्यान ही रहना पसंद करते हैं, जिनकी वे पूजा करते हैं। प्रकृति यहां लोगों की जीवनशैली है। यह उनकी संस्कृति और परंपराओं में रची-बसी है। यहां की लोककथाओं का अभिन्न हिस्सा है। इसी का नाम है छत्तीसगढ़।
यहां की संस्कृति, परंपराओं और अन्य पहलुओं के बारे में जितना अधिक जानेंगे, उतनी रूचि बढ़ती जाएगी-
प्रकृति देवी
देवगुडी : आदिवासी बहुल बस्तर के सुदूर जंगलों में बसे 12,000 से अधिक गांवों में देवगुडी वह स्थान है, जहां लोग मन की शांति पाने और सरना अथवा साल के पेड़ की पूजा करने जाते हैं। देवगुडी दूर तक फैला खुला स्थान है, लेकिन यह विशाल क्षेत्र चारों ओर बाड़ से घिरा है। यहां पूजा के साथ महुआ और उसके फूल चढ़ाए जाते हैं। सिरहा या पुजारी तमाम कार्यक्रमों को संपन्न कराने के साथ ही जरूरी चीजें भी उपलब्ध कराते हैं। मुरिया, मडिय़ा और गोंड समुदायों के लिए देवगुडी की यात्रा विशेष महत्व रखती है। यहां लोग मन्नतें मानते हैं। उत्तरी सरगुजा क्षेत्र के उरांव और कंवर जनजातियों में भी देवगुडी का बहुत सम्मान है, जो पूरे समर्पण और भक्तिभाव से सरना की पूजा करते हैं। इसमें अंतर केवल इतना है कि यहां गांव के बाहरी इलाके में खड़े सरना या साल का पेड़ बाड़ से घिरे नहीं होते हैं। हालांकि, वन क्षेत्रों में ग्रामीणों द्वारा बड़े पैमाने पर अतिक्रमण कर लिए जाने के कारण ये आदिवासी अब पेड़ों का घेराव कर उनकी सुरक्षा करने पर विचार कर रहे हैं।
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राज्य सरकार भी देवगुड़ी का महत्व समझती है। छत्तीसगढ़ आदिवासी कल्याण सचिव डीडी सिंह का कहना है कि सरकार ने देवगुडिय़ों की देखभाल करने के लिए बजट में प्रावधान किया है। इनमें से कई की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। इनके जीर्णोद्धार का कार्य किया जा रहा है। इस कार्य में ज्यादा खर्च नहीं आता है, क्योंकि देवगुड़ी खुली जगह होती है, जहां कोई शेड वगैरह नहीं होता।
कर्म और सरहुल त्योहार
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ओरम, गोंड और कंवर आदि सरगुजा जनजातियों में कर्म और सरहुल त्यौहार पूरे हर्षोल्लास से मनाए जाते हैं। कर्म पूजा के बारे में यहां एक लोककथा मशहूर है।
एक बार घने जंगलों में रोहतासगढ़ के आदिवासी राजा रोहित दुश्मनों से घिर गए। अपने शत्रुओं से बचाव के लिए उन्होंने यहां कर्म के पेड़ की पूजा की और इसकी झाडिय़ों के पीछे छिप गए। इससे न केवल उनकी जान बची, बल्कि उन्हें अपना राज्य भी वापस मिल गया। मान्यता है कि कर्म वृक्ष की पूजा करने के कारण ही राजा की जान बच पाई और उन्हें उनका साम्राज्य मिला।
आदिवासी समुदाय की सामाजिक संस्था पाड़ा पाधा के उप दीवान के एन राम कहते हैं कि यह लोक कथा नैतिकता और मूल्यों को विकसित करती है। यहां इसे रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की तरह माना जाता है। उन्होंने कहा कि इस लोक कथा के माध्यम से कर्म के महत्व को भी समझाया गया है।
दिलचस्प यह है कि कर्म उत्सव की तारीख तय नहीं होती। उचित समय आने पर स्थानीय पुजारी या बैगा द्वारा इसकी घोषणा की जाती है। गांवों में इसे अलग-अलग तारीखों में मनाया जाता है। इस मौके पर होने वाली पूजा में महुआ और सराय के फूलों का बड़ा महत्व होता है।
दूसरी ओर, सरहुल फसल कटाई का त्योहार है। इसमें सरना पूजा के साथ आदिवासी समुदाय अपनी समृद्धि के लिए पूजा करते हैं।
बस्तर दशहरा
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बस्तर के कई आदिवासी समुदाय प्रकृति के अलावा दशहरा उत्सव भी मनाते हैं, लेकिन यहां का दशहरा देश के बाकी हिस्सों से अलग होता है। बस्तर दशहरा पर छत्तीसगढ़ की सभी जनजातियों की देवी दंतेश्वरी की पूजा की जाती है। त्योहार मनाने के लिए इस दिन दंतेवाड़ा मंदिर से एक पालकी जुलूस शुरू होता है, जो त्योहार के दसवें दिन मुरिया दरबार के साथ संपन्न होता है।
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गोंचा उत्सव
वर्ष 1966 तक बस्तर पर शासन करने वाले भंज देव वंश के प्रभाव में गोंचा उत्सव मनाया जाता है। इसमें मुख्य रूप से रथ यात्रा निकलती है। यह छत्तीसगढ़ के पड़ोसी
ओडिशा का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है, जिसमें संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से भगवान जगन्नाथ, बालभद्र और सुभद्रा की रथयात्रा निकाली जाती है।
भंज देव राजवंश ने सदियों पहले इस त्योहार को शुरू किया था। इस राजवंश के शासन का अंत लोकप्रिय राजा प्रवीर चंद्र भंज देव के पुलिस फायरिंग में मारे जाने के साथ हुआ था। अंतिम राजा की लोकप्रियता के कारण बस्तर के आदिवासी समुदाय इस त्योहार को आज भी बड़े स्तर पर मनाते हैं। इसमें शाही परिवार के वंशज जुलूस का नेतृत्व करते हैं।