अनुच्छेद 243 एम स्पष्ट रूप से संसद को अनुसूचित जनजातियों की स्वायत्तता के लिए कानून में आवश्यक संशोधन करने का अधिकार देता है।
वर्ष 2010 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने भारत संघ बनाम राकेश कुमार के मामले को सुना और आनुपातिक, समुचित और प्रतिपूरक प्रतिनिधित्व के बीच के अंतर को स्पष्ट किया।
अनुसूचित जनजाति बहुल क्षेत्र में केवल अनुसूचित जनजाति का पंचायत अध्यक्ष होने के प्रावधान के खिलाफ अपील पर उच्च न्यायालय ने पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 और झारखंड पंचायती राज अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों को इस आधार पर रद्द कर दिया कि सार्वजनिक रोजगार की सीट पर 100 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया है, जबकि ऊपरी सीमा 50 प्रतिशत ही है।
यूनियन ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। सर्वोच्च न्यायालय ने हालांकि, अनुसूची-5 के तहत प्रदान किए गए उन विशेष प्रावधानों को बरकरार रखा, जो आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन में अनुसूचित जनजातियों की स्वायत्तता सुनिश्चित करते हैं। अदालत ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 243 एम स्पष्ट रूप से संसद को इस उद्देश्य के लिए कानून के अधिनियम में आवश्यक आपत्ति लगाने और संशोधन करने का अधिकार देता है, जैसा कि शीर्ष अदालत के इंदिरा साहनी जजमेंट मामले में किया था, जिसमें कहा गया है कि विशेष परिस्थितियों में 50 प्रतिशत कोटे की सीमा को पार किया जा सकता है।
देश के मुख्य न्यायाधीश ने अनुसूचित जनजाति वर्ग की सुरक्षा के उद्देश्य तथा अन्य गरीब लोगों के लिए नौकरी व शिक्षा में आरक्षण के प्रावधानों के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा कि इस फॉर्मूले को अनुसूचित क्षेत्रों में लागू नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 14, 39 (बी) और 39 (सी) राज्य को लोगों के समान सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास के लिए समानता का व्यवहार करने का अधिकार देता है।