अदालत के पास किसी समानार्थी शब्द को अनुसूची में निर्दिष्ट जनजातियों के समकक्ष घोषित करने की कोई शक्ति नहीं है।
एक रोचक मामला बिहार के नित्यानंद शर्मा का है, जिसमें शीर्ष अदालत ने गलत अनुवाद के कारण गड़बड़ी होना माना। राज्य सेवा में सहायक शिक्षक शर्मा ने खुद को बिहार में एक मान्यता प्राप्त अनुसूचित जनजाति लोहार से संबंधित बताते हुए एसटी आरक्षण के तहत पदोन्नति की मांग की। उन्हें इसका लाभ नहीं दिया गया। वह उच्च न्यायालय चले गए, लेकिन राहत नहीं मिली। कोर्ट ने 12 अगस्त, 1993 को उनकी याचिका खारिज कर दी।
यह मामला दोतरफा आधार पर सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा। एक आधार था कि लोहार अनुसूचित जनजाति है, जैसा कि अनुसूची के हिंदी संस्करण में उल्लेख किया गया है और दूसरा आधार अदालत द्वारा शंभू नाथ बनाम बिहार राज्य, 1990 में स्थापित मिसाल को बनाया गया।
हालांकि, राज्य सरकार के वकील ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि अधिनियम में अंग्रेजी और हिंदी संस्करणों में लोहारा/लोहरा को अनुसूचित जनजाति के रूप में दर्ज किया गया है जबकि लोहार को केवल हिंदी संस्करण में अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्णित किया गया है। यह गलत अनुवाद का परिणाम है।
इसके बाद 2 फरवरी, 1996 को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए शर्मा की अपील खारिज कर दी कि अदालत के पास समानार्थी शब्द को अनुसूची में निर्दिष्ट जनजातियों के समकक्ष घोषित करने या किसी जनजाति को शामिल करने या बदलने का कोई अधिकार नहीं है।
अदालत ने यह भी कहा कि अनुवादित संस्करण से यह पता चलता है कि समुदाय लोहार का लोहारा या लोहरा शब्द के लिए गलत तरीके से अनुवाद कर अनुसूची में शामिल दिखाया गया।