भुवनेश्वर
पार्वती हंसदा के माता-पिता अपनी इस लाडली को हमेशा हवाई जहाज में उड़ने के सपने दिखाते थे और चाहते थे कि वह उन्हें ऊपर हवा में उड़ते समय होने वाले अनोखे एहसास को उनसे भी साझा करे। अपनी जीवंत कला और संस्कृति के लिए मशहूर ओडिशा के मयूरभंज जिले की संथाल जनजाति से आने वाली पार्वती अभी केवल 18 वर्ष की हैं, लेकिन इस छोटी सी उम्र में ही उन्होंने रग्बी खेल में अपने हुनर का शानदार प्रदर्शन कर देश का नाम ऊंचा किया है।
पार्वती ने The Indian Tribal को बताया, ‘मैंने रग्बी में नौ बार राष्ट्रीय स्तर पर ओडिशा का प्रतिनिधित्व किया है और उज्बेकिस्तान में आयोजित अंडर-20 रग्बी टूर्नामेंट में अपने देश की तरफ से खेली हूं। इसी तरह, अंडर-18 में नेपाल में भारत का प्रतिनिधित्व किया। नेपाल के मुकाबले उज्बेकिस्तान में मुझे खेलने में ज्यादा मजा आया।
इस प्रतिभाशाली किशोरी के लिए करियर का अब तक का सफर इतना आसान नहीं रहा है। कक्षा 10 तक वह छात्रावास में रहकर पढ़ी हैं, जहां उन्होंने रग्बी खेलना सीखा। उस समय वह मात्र 14 वर्ष की थीं। वह बताती हैं, ‘कुछ सीनियर साथियों ने मुझे रग्बी खेलना सिखाया और धीरे-धीरे मेरी रुचि इस खेल में बढ़ती गई।’
पार्वती के पिता किसान हैं। घर की आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। इसलिए उन्हें हॉस्टल में रखा गया, क्योंकि वहां पढ़ाई से लेकर अन्य रहने-सहने का खर्च हॉस्टल की ओर से उठाया जा रहा था।
छात्रावास में रहने के दौरान अपने अनुभव को याद करते हुए पार्वती ने बताया कि खेलों की बात करें, तो वहां बहुत ज्यादा सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। उन्होंने कहा, ‘किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा कि मेरे जैसी लड़की इतनी दूर हॉस्टल में रहेगी और फिर रग्बी जैसे खेल में नाम कमाएगी। शुरू-शुरू में तो खास मार्गदर्शन भी नहीं मिल रहा था, लेकिन मैंने कड़ी मेहनत के बल पर आगे बढऩा शुरू किया और आज इतनी मेहनत कर चुकी हूं कि अब स्वयं को स्टिक से अलग रखने के बारे में सोच भी नहीं सकती।’
आज, पार्वती मयूरभंज के बारीपदा में फ्यूचर स्टार स्पोट् र्स अकादमी में रहती हैं। यहां तमाम लड़कियां रहती हैं, जिन्हें खेल की बारीकियों के साथ-साथ अंग्रेजी भी सिखाई जाती है, ताकि देश से बाहर जाने पर किसी प्रकार की भाषाई दिक्कत पेश न आए। वह बताती हैं, अंग्रेजी सीखने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि हमें अब ओडिशा के बाहर लोगों से बातचीत करने में आसानी होती है। इससे पहले के मुकाबले आत्मविश्वास भी बढ़ा है।
फ्यूचर अकादमी के संचालक दिव्यरंजन दास कहते हैं, ‘जब 2019 में पहली बार उन्होंने यह अकादमी शुरू की थी तो बहुत कम लोग रग्बी खेल के बारे में जानते थे। हालांकि, समय बदला और अब ऐसे भी लोग हैं जो इस खेल में खूब रुचि दिखा रहे हैं। अकादमी में आदिवासी खिलाड़ियों को रग्बी का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। यहां उन्हें प्रशिक्षण, भोजन और आवास सब कुछ मुफ्त में उपलब्ध कराया जाता है। दास खुद एक खिलाड़ी हैं।
खुद भुइयां जनजाति से ताल्लुक रखने वाले दास कहते हैं, ‘हमने छह लड़कियों के साथ यह अकादमी शुरू की थी। आज यहां 20 लड़कियां और 10 लड़के प्रशिक्षण ले रहे हैं। अकादमी को मयूरभंज फाउंडेशन के माध्यम से वित्तीय सहायता मिलती है। इस फाउंडेशन को तत्कालीन शाही परिवार चलाता है। रग्बी के अलावा यहां खिलाड़ी एथलेटिक्स और तीरंदाजी भी सीखते हैं। यहां के कई खिलाड़ियों ने राष्ट्रीय स्तर पर ओडिशा का प्रतिनिधित्व किया है। अधिकांश खिलाड़ी संथाल, हो और मुंडा जनजातियों के हैं।’
रग्बी को बढ़ावा देने के लिए तमाम टूर्नामेंट आयोजित किए जा रहे हैं। यही नहीं, लोगों को इस खेल के बारे में जागरूक करने और उनकी इसमें रुचि बढ़ाने के लिए कई कार्यक्रम चलाए जाते हैं। बेलगड़िया राजमहल की अक्षिता एम भानदेव भी इस खेल में गहरी रुचि रखती हैं।
शानदार खिलाड़ी और प्रशिक्षक 29 वर्षीय दास ने 2007 में रग्बी खेलना शुरू किया था। वह बच्चों के प्रशिक्षण पर ही नहीं, बल्कि उनके खान-पान पर भी पूरा ध्यान देते हैं। वह चाहते हैं कि उनकी अकादमी को ज्यादा से ज्यादा धनराशि मिले, ताकि वह क्षेत्र की तमाम उभरती प्रतिभाओं को निखार सकें।
इसी अकादमी में प्रशिक्षण ले रही 18 वर्षीय संध्यारानी टुडू पांच साल से रग्बी खेल रही हैं। वह छह बार राष्ट्रीय स्तर पर ओडिशा का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। विदेश में भारत का प्रतिनिधित्व करने का उनका सपना भी हाल ही में तब साकार हुआ जब उन्होंने बीते जून माह में विश्व विश्वविद्यालय चैम्पियनशिप रग्बी सेवेन्स में हिस्सा लेने के लिए फ्रांस की उड़ान भरी।
टुडूऔर पार्वती की तरह ही सुनीता हंसदा भी तीन साल से अकादमी से जुड़ी हैं। हंसदा पहले एथलेटिक्स में हाथ आजमा रही थीं, लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे रग्बी की ओर रुख करना शुरू किया। इसमें उन्होंने शानदार परिणाम दिया। वह पांच बार राष्ट्रीय स्तर पर ओडिशा के लिए खेल चुकी हैं। बिहार, गोवा, तेलंगाना, महाराष्ट्र और ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में अपनी प्रतिभा के जौहर दिखा चुकी हैं।
अकादमी में उनका प्रशिक्षण भी कड़े अनुशासन में होता है। रहन-सहन के साथ-साथ उठने, सोने, खाने-पीने और खेलने आदि का समय तय है।
यहां लड़कियां सुबह 5.30 बजे उठ जाती हैं। फ्रैश होकर अकादमी से एक किलोमीटर दूर स्थित मैदान में पहुंच जाती हैं, जहां सुबह 8.30 बजे तक खेल का अभ्यास करती हैं। उसके बाद वे शाम को 4 बजे से 6 बजे तक दो घंटे फिर अपने खेल को निखारने के लिए मैदान पर पसीना बहाती हैं।
इतना कड़ा परिश्रम?
इस सवाल पर सभी लड़कियां मुस्कुराती हुई जवाब देती हैं, ‘कड़ी मेहनत ही तो सफलता की कुंजी है।’
(सभी तस्वीरें : दीब्यारंजन दास)