गुवाहाटी
असम के ऊपरी इलाकों के कुछ आदिवासी गांवों में एक ऐसा खेल खेला जाता है, जो काफी हद तक मुर्गों की लड़ाई से मिलता-जुलता होता है। इसीलिए तो इसका नाम मुर्गा लड़ाई पड़ा है।
यह खेल बड़ा ही रोचक होता है, लेकिन इसमें थोड़ी चुस्ती, थोड़ी फुर्ती और शरीर की मजबूती काम आती है। एक समतल खुले मैदान में 12 खिलाडिय़ों की दो मजबूत टीमें खेल में उतरती हैं। मैदान पर खेल के दौरान सभी खिलाडिय़ों को एक पैर पर कूदना होता है। दूसरे पैर को मोडक़र उसे एक हाथ से पकडऩा पड़ता है। यही नहीं, दूसरा हाथ कंधे पर रखना होता है।
जमीन पर कलई या चूने से लगभग 30 फीट व्यास का गोल घेरा बनाकर उसके एक तरफ बांस खड़ा किया जाता है। बांस की तरफ एक टीम अर्धवृत्त (सेमी सर्किल) में खड़ी होती है। प्रत्येक खिलाड़ी के बीच तीन फीट की दूरी होती है। इस प्रकार अर्धवृत्त के दोनों छोर पर एक-एक खिलाड़ी और मध्य में तीन खिलाड़ी खड़े होते हैं। इनसे किनारों पर खड़े खिलाडिय़ों की दूरी लगभग 12 फीट रहती हैं। रेफरी के संकेत पर विरोधी टीम का एक खिलाड़ी मैदान के बीच में कहीं से अपनी पारी शुरू करता है और बांस की ओर दौड़ता है।
खेल की रोचकता यहीं से शुरू होती है, क्योंकि सभी खिलाड़ी एक टांग पर खड़े होते हैं। दूसरी टांग को वे मोडक़र एक हाथ से पकड़े होते हैं और दूसरा हाथ सीने से ऊपर कंधे पर रखे हुए होते हैं। टंगड़ी चाल चलते हुए विरोधी टीम का खिलाड़ी बांस को छूने के लिए आगे बढऩे का प्रयास करता है, जबकि पहले से सेमी सर्किल में एक पैर ही खड़ी दूसरी टीम उसे टकराकर रोकने का प्रयास करती है। इस कवायद में किसी भी स्तर पर हाथों का इस्तेमाल नहीं होता है।
रोकने और आगे बढऩे की कोशिश का यह नजारा देखने लायक होता है। यदि कोई खिलाड़ी बिना पकड़े बांस तक पहुंच जाता है, तो उसकी टीम को एक अंक मिलता है। इस प्रकार पूरे खेल के दौरान सभी खिलाडिय़ों को व्यक्तिगत रूप से बांस के बाड़े तक दौडऩे का मौका मिलता है। इस खेल में खिलाडिय़ों को बहुत अधिक ताकत के साथ-साथ चपलता, चतुरता और सतर्कता की जरूरत होती है। इसलिए इस खेल के माहिर युवा बिना वर्कआउट और बिना जिम जाए इस खेल के माध्यम से मजबूत कद-काठी के हो जाते हैं।
यूं तो बच्चे आम तौर पर गांवों में, स्कूलों में मुर्गा लड़ाई का आनंद लेते हैं, लेकिन आज ऊपरी असम के आदिवासी गांवों में विशेष रूप से माघ बिहू और बोहाग बिहू जैसे उत्सव के अवसरों पर यह खेल बड़े ही उत्साह के साथ खेला जाता है, जिसे देखने के लिए भारी भीड़ जुटती है।
कहा जाता है कि कभी-कभी गांव के बुजुर्ग अपनी बेटियों या पोतियों के लिए संभावित दूल्हे की तलाश करने के लिए इस खेल को देखते हैं। इसमें वे संभावित दूल्हे के शारीरिक रूप से स्वस्थ और मजबूत कद-काठी वाला होने का पता आसानी से लगा लेते हैं।
जोरहाट के रहने वाले मिनाक्षी अधिकारी कहते हैं कि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अमीर और समृद्ध किसान अपने खेतों में मजदूरी के आधार पर काम करने लिए बलशाली युवाओं को इन्हीं खेलों के माध्यम से छांट लेते हैं।
मानसून के मौसम में गोलाकार मुर्गा लड़ाई के खेल से आमतौर पर परहेज किया जाता है, क्योंकि खेल के दौरान गिरने से खिलाड़ी कीचड़ में गंदे हो सकते हैं।